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स॒स॒र्प॒रीर॑भर॒त्तूय॑मे॒भ्योऽधि॒ श्रवः॒ पाञ्च॑जन्यासु कृ॒ष्टिषु॑। सा प॒क्ष्या॒३॒॑ नव्य॒मायु॒र्दधा॑ना॒ यां मे॑ पलस्तिजमद॒ग्नयो॑ द॒दुः॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

sasarparīr abharat tūyam ebhyo dhi śravaḥ pāñcajanyāsu kṛṣṭiṣu | sā pakṣyā navyam āyur dadhānā yām me palastijamadagnayo daduḥ ||

पद पाठ

स॒स॒र्प॒रीः। अ॒भ॒र॒त्। तूय॑म्। ए॒भ्यः॒। अधि॑। श्रवः॑। पाञ्च॑ऽजन्यासु। कृ॒ष्टिषु॑। सा। प॒क्ष्या॑। नव्य॑म्। आयुः॑। दधा॑ना। याम्। मे॒। प॒ल॒स्तिऽज॒म॒द॒ग्नयः॑। द॒दुः॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:53» मन्त्र:16 | अष्टक:3» अध्याय:3» वर्ग:22» मन्त्र:1 | मण्डल:3» अनुवाक:4» मन्त्र:16


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! (पलस्तिजमदग्नयः) जाना है प्राजापत्य आदि अग्नियों को जिन्होंने वे और अवस्था और ज्ञान में वृद्ध पुरुष (याम्) जिसको (ददुः) देवें (सा) वह (पक्ष्या) पक्षों में साध्वी (पाञ्चजन्यासु) पाँच दिनों तथा प्राणों में उत्पन्न (कृष्टिषु) मनुष्य आदि प्रजाओं में (नव्यम्) नवीन ही (आयुः) अन्न वा जीवन को (दधाना) धारण करती हुई (एभ्यः) इन जानने की इच्छा करनेवालों के लिये (श्रवः) अन्न को (अधि) उपरि भाग में (तूयम्) शीघ्र (ददुः) देवें (ससर्परीः) सुख की बढ़ानेवाली (अभरत्) प्राप्त कराइये ॥१६॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! जो कार्य की सिद्धि और ऐश्वर्य की उत्पन्न करने और अवस्था की बढ़ानेवाली सत्य लक्षणों से स्पष्ट वाली नवीन-नवीन विज्ञान और जीवन धारण करती है, उसको नित्य धारण करो ॥१६॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे मनुष्या पलस्तिजमदग्नयो मे यां ददुः सा पक्ष्या पाञ्चजन्यासु कृष्टिषु नव्यमायुर्दधाना एभ्य श्रवोऽधि तूयं ददुः ससर्परीरभरत् ॥१६॥

पदार्थान्वयभाषाः - (ससर्परीः) सुखस्य प्रापिका (अभरत्) (तूयम्) शीघ्रम् (एभ्यः) जिज्ञासुभ्यः (अधि) उपरिभावे (श्रवः) अन्नम् (पाञ्चजन्यासु) पञ्चसु दिनेषु प्राणेषु भवासु (कृष्टिषु) मनुष्यादिप्रजासु (सा) (पक्ष्या) पक्षेषु साध्वी (नव्यम्) नवीनमेव (आयुः) अन्नं जीवनं वा। आयुरित्यन्नना०। निघं०२। ७। (दधाना) (याम्) (मे) मम (पलस्तिजमदग्नयः) प्रजमिता विदिता अग्नयः पलस्तयो वयोज्ञानवृद्धाश्च जमदग्नयो यैस्ते (ददुः) दद्युः ॥१६॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्या या कार्यसिद्ध्यैश्वर्योत्पादिका आयुर्वर्धिका सत्यादिलक्षणोज्ज्वला वाणी नवीनं विज्ञानं जीवनं च दधाति तां नित्यं विभृत ॥१६॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे माणसांनो! जी कार्याची सिद्धी व ऐश्वर्य उत्पन्न करणारी आणि आयुष्य वाढविणारी सत्यलक्षणयुक्त स्पष्ट वाणी नवीन विज्ञान व जीवन देते तिला नित्य धारण करा. ॥ १६ ॥